खिलाड़ी जब तक रणजी टीम में जगह नहीं बना पाते, तब तक प्रदेश की टीम उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण होती है। मगर प्रदेश की सीमाएं लांघकर आगे की टीमों में पहुंचने के बाद स्वयं को पहले की तरह सामान्य रखना चुनौती होती है। कई उदाहरण हैं जहां सितारा खिलाड़ी स्वयं को प्रदेश की टीमों से ऊपर समझने लगे। फिलहाल चर्चा मप्र के वेंकटेश अय्यर की है। आइपीएल में चोट लगने के बाद भी मैदान नहीं छोड़ा और शतक लगाया। टीम के प्रति समर्पण की प्रशंसा हो रही है, होना भी चाहिए। आइपीएल में चार ओवर खेलने के इतने पैसे मिलते हैं, जितने रणजी ट्राफी में चार दिन धूप में खड़े रहने पर भी नहीं मिलते। कहने को पैसा ही सबकुछ नहीं होता, लेकिन जहां बोली लगाकर खिलाड़ी खरीदे जाते हों, वहां पैसे की माया को नजरअंदाज भी नहीं कर सकते। मप्र के लिए वेंकटेश रणजी ट्राफी का लगभग पूरा सत्र नहीं खेले, क्योंकि चोटिल थे। फिर ईरानी ट्राफी से भी दूर रहे।
रोशन होने से पहले ‘अंधेरे’ में मप्र क्रिकेट लीग
मध्य प्रदेश के क्रिकेट में ज्योतिरादित्य सिंधिया पद पर हों या न हों, यहां के ‘महाराज’ वे ही हैं। मगर लंबे समय से उनके पुत्र महानआर्यमन सिंधिया के प्रशासनिक पदार्पण का इंतजार था। ग्वालियर संभाग में तो वे पदाधिकारी बन चुके थे, लेकिन प्रदेश क्रिकेट में ‘नाम’ करने के लिए मौके की तलाश थी। मप्र क्रिकेट लीग के जरिए इसका भी रास्ता तैयार हो गया था। बीसीसीआइ से विंडो भी मिल गया था। मगर अंदरखाने की खबरें बता रही हैं कि छोटे महाराज का टूर्नामेंट खटाई में पड़ता दिख रहा है। आइपीएल की तर्ज पर होने वाला यह आयोजन ग्वालियर के कैप्टन रूपसिंह स्टेडियम में होना था, लेकिन स्टेडियम का रूप संवारने का खर्च कुछ ज्यादा ही हो रहा था। मामला फ्लड लाइट के कारण अटकता दिख रहा है। बिना चकाचौंध के फटाफट क्रिकेट की भव्यता नजर नहीं आती। मगर रूपसिंह स्टेडियम के दो टावरों की बत्ती गुल है। ऐसे में बीसीसीआइ से इस सत्र में मिले विंडो में आयोजन होना संभव नहीं लगता।
सत्ता के गलियारों में कुर्सी की पूछपरख
दुनिया उगते सूरज को प्रणाम करती है। सत्ता के गलियारों में जो पद पर होता है, उसका रुतबा होता है। जिसकी कुर्सी गई, उसकी पूछपरख भी कम होने लगती है। कुर्सी से दूर होने की इसी पीड़ा से कई लोग गुजरते हैं, लेकिन एक वरिष्ठ नेता का दर्द गत दिनों कलम के जरिए शब्दों के रूप में सामने आ गया। ‘शहरी सरकार’ पहले भी भाजपा की थी और अब भी है। मगर कुर्सियाें पर कई चेहरे बदल गए हैं। निगम के बजट को लेकर पक्ष–विपक्ष के जनप्रतिनिधियों से सुझाव के लिए बैठक बुलाई गई, लेकिन ‘पिछली सरकार’ के कुछ अनुभवी उसमें शामिल नहीं थे। अब तक बैठकों के लिए जिनकी ‘रजामंदी’ अहम होती थी, उन्हें अब पूछा नहीं गया। वैसे सबको बुलाना जरूरी भी नहीं, लेकिन सलाह तो कोई भी दे सकता है। ऐसे ही एक वरिष्ठ नेता ने भी आगे होकर कहा है कि हमारे अनुभव का इस्तेमाल करें। अब निगम के गलियारों में चर्चा चल पड़ी कि अनुभव का इस्तेमाल करना होता तो चुनाव लड़ाकर परिषद तक पहुंचाते।
बिना कार्यकर्ता के नेता की यात्रा
प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह जहां भी जाते हैं कार्यकर्ताओं की भीड़ पहुंच जाती है। दिग्विजय की नर्मदा परिक्रमा के दौर में भी कार्यकर्ता उनके साथ थे। वैसे ‘बड़े नेता’ की पहचान कार्यकर्ताओं की भीड़ से होती है। कई नेता ऐसे भी हैं जो पहले भीड़ जुटाते हैं, फिर आगे बढ़ते हैं। मगर गत दिनों प्रदेश के पूर्व कैबिनेट मंत्री जयवर्धन सिंंह बिना लवाजमे के इंदौर के प्रशासनिक कार्यालय में चप्पल पहनकर घूमते दिखे। वहां मौजूद लोग कयास लगाने लगे कि यह चेहरे से दिग्विजय सिंह का बेटा लग रहा है। अब नेताओं को भीड़ में देखने की आदत है तो अकेले देखकर आंखों को दिमाग यकीन नहीं करने दे रहा था। हालांकि बाद में पता चला वे रजिस्ट्रार कार्यालय निजी काम से आए थे और सबको बताए काम ऐसा था भी नहीं। पूर्व मंत्री गुपचुप आए और गुपचुप ही चले गए। मोबाइल सेल्फी के दौर में एक ने फोटो खिंचाने की चाहत दिखाई, और कई ने कैमरे की रोशनी में अपना चेहरा साथ में चमका लिया।
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