आलेख
अजय बोकिल
भाजपा और कांग्रेस सहित कुछ राजनीतिक दलों के 18 वीं लोकसभा चुनाव के लिए घोषणा पत्र जारी हो चुके हैं। कुछ के होने वाले हैं और बाकी कुछ के लिए घोषणा पत्र जारी करने से ज्यादा चिंता अपना राजनीतिक वजूद बचाने की है। सरसरी तौर पर देखा जाए तो सभी पार्टियों के चुनाव घोषणा पत्र में रेवड़ी कल्चर का अधिकाधिक विस्तार और होड़ है। बल्कि यूं कहें कि अपने वैचारिक फ्रेम में रेवड़ी संस्कृति को फिट करने और उसके औचित्य को जताने की पुरजोर कोशिश है। अब तक के अनुभव को देखते हुए कहा जा सकता है कि जिस पार्टी का घोषणा पत्र जितना लोक लुभावन और ‘रेवड़ी पैक’ होता है, उसके सत्ता में आने की संभावना उतनी ही कम होती है। इसका सीधा अर्थ यह है कि जिस पार्टी का राजनीतिक जनाधार जितना कम होता है, उसकी सियासी शिगूफेबाजी उतनी ही ज्यादा होती है। अगर आप इसी पैमाने पर सारे राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों की टेस्टिंग करें तो सचाई समझ आ जाएगी। इसी के साथ यह सवाल भी नत्थी है क्या चुनावों में मतदाता घोषणा पत्र देख- सुनकर भी वोट देता है या फिर मतदान का हरेक का अपना एक ईको सिस्टम होता है, जिसके अनुरूप वोटर वोट डालता है? वोटर के सामने बड़ी चुनौती यही है कि वह विवेकपूर्ण ढंग से मतदान कैसे करे?
देश के चुनाव नतीजों के ट्रेंड को समझें तो बीते कुछ वर्षों से मतदाता वैचारिक आग्रह- दुराग्रहो और शाब्दिक लफ्फाजी के झांसे में आए बगैर मतदान के लिए उन बातों को प्राथमिकता देता ज्यादा लगता है, जो उसे किसी न किसी न रूप में सीधा फायदा पहुंचाती हैं फिर वह चाहे नकदी के रूप में हों, अवसर के रूप में हो या सुरक्षा अथवा आश्वस्ति के रूप में हो। वह जान चुका है कि चुनाव घोषणा पत्र हर चुनावी सावन में नए सिरे से किया जाने वाला राजनीतिक सुंदरकांड का पाठ है, जिसका व्यवहार के स्तर पर न तो कोई खास महत्व है और न ही वो पार्टियां भी चुनाव बाद इसकी धूल झाड़ती हों, जो जोर- शोर से इसे हर चुनाव की बेला में जारी करती हैं।
अंग्रेजी में चुनाव घोषणा पत्र को ‘मेनीफेस्टो’ कहा जाता है। डिक्शनरी में इसका अर्थ ऐसे राजनीतिक बयान से है, जो सत्ता में आने पर सम्बन्धित दल के कार्यक्रमों की रूप रेखा पेश करता हो, जिसमें सियासी दल की विचारधारा, अभिमत, कार्य योजना, दृष्टि और एप्रोच की झलक मिलती हो। इसे जानकर मतदाता यह तय कर सके कि किसे वोट देना बेहतर होगा, कौन देश अथवा प्रदेश को ठीक से चला सकता है, किसमें एक आम नागरिक की मूलभूत समस्याअों का निदान कर उसकी जिंदगी सुलभ बनाने की क्षमता और इच्छाशक्ति है। लेकिन मतदाता हमेशा इसी आधार पर वोट दे, यह जरूरी नहीं है। वह प्रसंगानुरूप प्राथमिकताएं तय करके भी कई बार वोट करता है। इसीलिए एक बार जारी घोषणा पत्र राजनीतिक पार्टियों को भी अगले चुनाव में याद नहीं रहता। वो जनभावनाअों और अपेक्षाअों को रेवडि़यों के माध्यम से राजनीतिक दोहन का अधिकाधिक प्रयास करते दिखते हैं। क्योंकि घोषणा पत्रों की पुरानी शब्दावलियां और जुमले अब अपने अर्थ खो चुके हैं। ( कुछेक राजनीतिक दल अभी भी उसी से चिपके हुए हैं, वो अलग बात है)। ऐसे में मतदाता को लुभाने के लिए दरकार है नए जुमलों, प्रतीकों और प्रलोभनों की। इसकी छाया हमे खुद घोषणापत्रों की वैकल्पिक संज्ञाअोंमें देखने को मिलती है। ज्यादातर पार्टियों ने घोषणा पत्रों के राजनीतिक पर्यायवाची खोज लिए हैं। मसलन न्याय पत्र, संकल्प पत्र, वचन पत्र, दृष्टि पत्र, गांरटी पत्र आदि। दिलचस्प बात यह है कि जैसे जैसे घोषणापत्रों में गांरटियों का पलडा भारी होता जा रहा है, विचार पक्ष का स्पेस उतना ही कम होता जा रहा है। घोषणा पत्र जारी करने में भी प्रतीकात्मक राजनीति का पूरा खयाल रखा गया है। मसलन कांग्रेस ने पूर्व केन्द्रीय मंत्री व दलित नेता बाबू जगजीवन राम के जन्म दिन पर घोषणा पत्र जारी किया तो भाजपा ने संविधान निर्माता डाॅ.बाबा साहब अंबेडकर की जयंती पर अपना घोषणा पत्र जारी किया।
इस बार चुनाव घोषणा पत्र में कांग्रेस का न्याय पत्र चर्चा में है। इसमें 5 न्याय और 25 गारंटियों की बात कही गई है। कहा जा रहा है कि यह घोषणा पत्र, वर्क, वेल्थ और वेलफेयर ( काम, धन और कल्याण) के तत्वों पर आधारित है। इस घोषणा पत्र की भावना अच्छी है, लेकिन वादे हवाई ज्यादा हैं। कांग्रेस के घोषणा पत्र में एक बड़ा वादा सबकी महालक्ष्मी योजना का है। इसके तहत गरीब परिवारों को सीधे एक लाख रुपये नकद देना का वादा है। देश में बीपीएल परिवारों की संख्या करीब 30 लाख है। प्रत्येक परिवार को हर साल 1 लाख नकद देने के लिए सालाना 3 खरब रूपए चाहिए। ये कहां से आएंगे, स्पष्ट नहीं है। दूसरी बात यह है कि कांग्रेस व अन्य विरोधी पार्टियां मोदी सरकार द्वारा 80 करोड़ गरीब परिवारों को मुफ्त राशन योजना देने की आलोचना इस आधार पर करती हैं कि सरकार फ्री अनाज के बजाए काम दे। अब इस 1 लाख रू. को किस श्रेणी में रखा जाएगा। वैसे देश के पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम का दावा है कि पूर्व प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों की वजह से देश में 10 सालों में 24 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर निकले थे। वहीं अब मोदी सरकार का दावा है कि बीते दस साल में 24.8 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर निकले ( नीति आयोग की रिपोर्ट)। अगर दोनो को सही मान लिया जाए तो बीते 20 साल में कुल 50 हजार करोड़ आबादी जो कि कुल आबादी का एक तिहाई है, गरीबी रेखा से बाहर आ चुकी है। तो फिर सरकार किन 80 करोड़ बीपीएल परिवारों को मुफ्त राशन दे रही है?
इसी तरह कांग्रेस के न्याय पत्र में 30 लाख युवकों को सरकारी नौकरी देने की बात है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार आज देश में केन्द्र सरकार के पास कुल नौकरियां ही 40 लाख हैं। इनमें भी 10 लाख पद खाली हैं। ये भर भी दिए जाएं तो बाकी 20 लाख को सरकारी नौकरी कैसे मिलेगी, यह सोचने की बात है। घोषणा पत्र में एक अहम वादा न्यूनतम मजदूरी बढ़ाकर 400 रू. करने और आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसदी से बढ़ाने संविधान संशोधन करने का भी है, हालांकि यह जाति जनगणना के बाद ही संभव है। कांग्रेस जाति जनगणना का वादा भी कर रही है, जिसकी वजह से खुद कांग्रेस के अगड़े नेताअों में भारी खदबदाहट है। इसके अलावा कांग्रेस के घोषणा पत्र में सत्ता में आने पर संवैधानिक संस्थाअों की आजादी ‘बहाल’ करने तथा इलेक्टोरल बांड, पीएम केयर्स फंड, सरकारी सम्पत्तियों को बेचने तथा रक्षा सौदों की डील की जांच करने के भी वादे किए किए हैं। हालांकि ये मतदाता को कितना प्रभावित कर पाएंगे, कहना मुश्किल है। साथ ही कृषि उत्पादो के लिए एमएसपी गारंटी कानून लाने का वादा भी पूरा करना आसान नहीं है। गौरतलब है कि कांग्रेस ने 2019 के आम चुनाव घोषणा पत्र गरीब परिवारों को, हर महीना 6000 रुपये देने का वादा किया था। इसी के साथ देशभर के लिए 25 लाख रुपए तक फ्री इलाज की योजना (हालांकि राजस्थान में राहुल गांधी ने 50 लाख रु. तक के फ्री इलाज की घोषणा की थी, इसके बाद कांग्रेस वहां हार गई थी)।
उधर भाजपा के ‘संकल्प पत्र’ में किसी नई लोकलुभावन योजना का वादा नहीं है, सिवाय आयुष्मान योजना में बुजुर्गों को सम्मिलित करने के। पार्टी आत्म संकल्प और आत्ममुग्धता के झूले में झूल रही है। चुनाव में भाजपा मुख्यत: अपने काम के आधार पर ही वोट मांग रही है। पार्टी मान रह है कि मोदी का नेतृत्व, राम मंदिर का निर्माण और 80 करोड़ लोगो को फ्री राशन चुनाव जीतने के ऐसे शर्तिया नुस्खे हैं, जिनके परे जाकर मतदाता कम ही सोचेगा। अलबत्ता दक्षिण भारत में लड़ा जरा अलग तरह की और ज्यादा कठिन है। भाजपा देश में समान नागरिक संहिता लागू करने पर आमादा है। उसके घोषणा पत्र में देश के स्वर्णिम भविष्य के सपने ज्यादा हैं। वह खुद भी उम्मीदों की बुलेट ट्रेन में सवार है। पार्टी ‘एक देश, एक जनादेश’ पर कायम है। खास बात यह है कि इस बार बीजेपी का सारा प्रचार मोदी केन्द्रित और मोदी निर्भर ही है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी अब केवल अपनी ही गारंटियों, काबिलियत और दूरदर्शिता की तारीफ करते नहीं थकते। इसका मतदाता पर कैसा असर होगा, यह चुनाव नतीजों से पता चलेगा। बावजूद इन तमाम बातों के बीजेपी के घोषणा पत्र में यह सावधानी अंतनिर्हित है कि सत्ता में लौटने पर कोई वादा उसे भारी न पड़ जाए। विकास की दिशा वही रहे, जो उसने तय कर रखी है।
उधर कुछ क्षेत्रीय पार्टियों ने अपने चुनाव घोषणा पत्रों में ऐसी बातें भी शामिल की हैं, जो उनकी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षों को परिलक्षित करती हैं। साथ में रेवडि़यां तो हैं ही। राष्ट्रीय जनता दल ने वादा किया है कि इंडिया गठबंधन के सत्ता में आने पर बिहार में 200 यूनिट फ्री बिजली दी जाएगी। बिहार को विशेष राज्य का दर्जा और 1 लाख 60 हजार करोड़ का स्पेशल पैकेज दिया जाएगा। राजद का एक बड़ा वादा देश में 1 करोड़ लोगों को सरकारी नौकरी देने, 30 लाख खाली पदों को भरने तथा 70 लाख नए पद सृजित करने का है। यह प्रक्रिया 15 अगस्त से शुरू भी हो जाएगी। यह बात अलग है कि आज देश में केन्द्र व राज्य सरकारों की मिलाकर कुल नौकरियां ( सार्वजनिक उपक्रम भी मिला लें) सवा करोड़ से ज्यादा नहीं हैं। खाली पद करीब भी 25 लाख से ज्यादा नहीं होंगे। राजद कुल जमा 23 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। इसी तरह डीएमके के घोषणा पत्र में महिलाअों को प्रति माह 1 हजार रू. देने व तमिलनाडु को नीट से छूट देने और पेट्रोल डीजल के दाम घटाने का वादा है। पार्टी ने सीएए कानून रद्द करने तथा समान नागरिक संहिता लागू न करने का वादा किया है। माकपा ने भारत के परमाणु निरस्त्रीकरण का वादा भी किया है। विश्व शांति के आग्रह से उपजे इस वादे में देश को सैन्य शक्ति के मामले में 1962 वाले दौर में ले जाने का मंतव्य ज्यादा झलकता है। मजेदार बात यह है कि इंडिया गठबंधन में शामिल माकपा ने कुछ मुद्दों पर जैसे कि कश्मीर में धारा 370 हटाने के मुद्दे पर सहयोगी कांग्रेस को कुछ मुद्दों पर फ्रेंडलीघेरा’भी है। एक समय था जब कांग्रेस और कम्युनिस्ट एक दूसरे के राजनीतिक दुश्मन हुआ करते थे। वामपंथी इतिहासकार मृदुला मुखर्जी ने एक लेख में बताया था कि देश के पहले आम चुनाव में कांग्रेस का घोषणा पत्र इसी चिंता पर आधारित था कि कम्युनिस्टों से मुकाबला कैसे किया जाए। इसी तरह सपा के घोषणा पत्र में समाजवादी पार्टी के घोषणा पत्र में जाति जनगणना,सबको न्याय, फ्री शिक्षा,महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण, खाली पड़े सरकारी पदों पर भर्ती, किसान कर्जमाफी व रक्षा क्षेत्र को मजबूत करने का वादा है। बसपा सुप्रीमो मायावती अपने वादे में पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग राज्य बनाने की पैरवी कर रही हैं।
तृणमूल कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में लागू ‘लक्ष्मीर भांडार’, कन्याश्री तथा स्वास्थ्य साथी योजना पूरे देश में लागू करने की बात कही है। खास बात यह है कि दोनो प्रतिदंद्वी राजनीतिक दलों के गठबंधनों का कोई समन्वित घोषणा पत्र चुनाव में नहीं है। लिहाजा ये सभी सत्ता की लड़ाई स्वार्थ जनित शस्त्रास्त्रों से ही लड़ रहे हैं। मतदाता के सामने चुनौती यह है कि वह रेवडि़यों, हवाई वादो और जिंदगी से जुड़े मुद्दों के बीच किसको तरजीह दे। देश को, लोकतांत्रिक संस्थाअो को, धर्म या जाति को अथवा अपने हाथ और पेट को ?
“राइट क्लिक “
-लेखक ‘सुबह सवेरे’ के वरिष्ठ संपादक हें।