मुकेश साहू दीवानगंज रायसेन
होली के 1 दिन पहले दीवानगंज हाट बाजार में जमकर पिचकारी और कलर विका जिन लोगों ने हाट बाजार में पिचकारी कलर की दुकान लगाई थी उनकी दुकानों पर भीड़ लगी रही, कोई पिचकारी खरीद रहा था तो कोई गुलाल खरीद रहा था कोई कलर मांग रहा था समय के साथ पिचकारी में बदलाव होता चला गया। पिचकारी के बिना होली अधूरी है। साठ के दशक में बांस से बनी पिचकारी से होली का रंग बरसता था। बाद में उसकी जगह पीतल और फिर स्टील की पिचकारी आ गई। त्योहार पर बाजार का रंग गाढ़ा हुआ तो प्लास्टिक की अलग-अलग डिजाइन में
पिचकारियां बिकने लगीं। इस साल तो इससे भी दो कदम आगे बढ़कर रंग-गुलाल भरे पटाखे आ गए। पिचकारी की दुकान चलाने वाले गोपी नायक कहते हैं कि लोग कैसे और किससे रंग खेलेंगे, अब यह भी बाजार तय करने लगा है। पहले कम से कम 15 दिन पहले ही होली का माहौल बन जाता था। बाजार में दूर-दूर और साप्ताहिक हुआ करते थे। ऐसे में लोग त्योहार को यादगार बनाने के लिए नए-नए उपाय करते थे। ग्रामीण क्षेत्र में लोग बांस की पिचकारी बनाते थे, जिसके लिए बांस की गांठ, लकड़ी और कपड़े का प्रयोग होता था। आजादी के एक दशक बाद पीतल की पिचकारी का दौर आया। हालांकि, तब यह केवल आर्थिक रूप से संपन्न लोगों के ही पास होती थी। पीतल की पिचकारी भी अलग-अलग प्रकार की बनने लगी। इसे आकर्षक बनाने के लिए उसकी डिजाइनिंग होने लगी। कई सालों से दीवानगंज हाट बाजार में पिचकारी और कलर बेचने वाले थोक विक्रेता फरीद खान कहते है कि हमारा कारोबार दीवानगंज है बाजार मे चार पीढि़यों से चल रहा है। होली और पिचकारी की चर्चा छिड़ते ही फरीद खान ने कहा कि हमारे पिताजी बताते थे मैंने जब दुकान पर बैठना शुरू किया तो उस वक्त पिचकारी की कीमत दो रुपये हुआ करती थी। तब नया-नया प्लास्टिक का चलन शुरू हुआ था।स्प्रिंग वाली पिचकारी की बिक्री खूब होती थी। इसी दौर में स्टील की फव्वारे वाली पिचकारी आई, जो बाद में पीतल की पिचकारी का विकल्प बन गई। हालांकि, प्लास्टिक के चलन ने इसमें भी परिवर्तन किया और बाद में स्टील जैसी पिचकारी प्लास्टिक की मिलने लगी। हर साल तकनीक बदलती जा रही है। पहले लोग एक बार पिचकारी खरीदते थे और कई वर्ष तक उससे होली खेलते थे। लेकिन अब कंपनियां हर साल नए डिजाइन को लांच करती हैं। बच्चे भी होली के बाद पिचकारी फेंक देते हैं।