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बांग्लादेश हिंसा और संकट: बांग्लादेशी हिंदुओं के सड़कों पर एकजुट प्रतिरोध के मायने…अजय बोकिल

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आलेख

अजय बोकिल

बांग्लादेशी हिंदुओं का इस तरह सड़क पर आकर अपनी बात को दमदारी से रखना इसलिए भी अभूतपूर्व है, क्योंकि हिंदुओं ने सदियों से अपने धर्म और दर्शन का तो प्रसार किया, अपवाद स्वरूप सैन्य विजय भी की, लेकिन कभी अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए वैश्विक स्तर पर एक साथ आवाज बुलंद की हो, ऐसा याद नहीं पड़ता।

पड़ोसी बांग्लादेश में शेख हसीना सरकार के तख्ता पलट के बाद हिंसक प्रदर्शन हुए। इन प्रदर्शनों के बीच वहां के मुख्य अल्पसंख्यक समुदाय हिंदुओं पर लगातार हो रहे हमलों, उनके धर्मस्थलों को जलाने तथा कई हिंदू नेताओं की हत्या की घटनाएं हुईं। हालांकि बाद वहां के हिंदुओं ने जिस हिम्मत और धार्मिक प्रतिबद्धता के साथ राजधानी ढाका और कई शहरों में प्रदर्शन किया और अपने मानवाधिकारों की रक्षा की गुहार करते हुए अपनी मांगें नई सरकार के सामने रखीं, उसे नई वैश्विक हिंदू चेतना के आलोक में देखा जाना चाहिए।


दरअसल, इन साहसपूर्ण प्रदर्शनों का असर यह हुआ कि संयुक्त राष्ट्र संघ मुख्यालय सहित दुनिया के कई शहरों में हिंदू सड़कों पर उतरे और अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए शांतिपूर्वक मांग की। दुनियाभर में संदेश गया कि हिंदू भी उतने ही पीड़ित हैं जितने कि अन्य अल्पसंख्यक समुदाय। इस वैश्विक दबाव का थो़ड़ा तो असर हुआ और बांग्लादेश की अंतरिम सरकार ने हिंदुओं की रक्षा का वचन दिया। इसके पूर्व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी बांग्लादेश के अंतरिम के मुख्य सलाहकार मोहम्मद युनूस को शपथ ग्रहण पर बधाई संदेश में वहां के हिंदुओं की रक्षा करने की अपील की थी।
बांग्लादेश में हिंदुओं का एकजुुटहोना
बांग्लादेशी हिंदुओं का इस तरह सड़क पर आकर अपनी बात को दमदारी से रखना इसलिए भी अभूतपूर्व है, क्योंकि हिंदुओं ने सदियों से अपने धर्म और दर्शन का तो प्रसार किया, अपवाद स्वरूप सैन्य विजय भी की, लेकिन कभी अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए वैश्विक स्तर पर एक साथ आवाज बुलंद की हो, ऐसा याद नहीं पड़ता। जबकि दूसरे धर्मों के अनुयायियों के साथ दुनिया के किसी कोने में भी होने वाली किसी भी ज्यादती के खिलाफ तमाम देशों में प्रदर्शन शुरू हो जाते हैं। वैश्विक भाईचारा जागने लगता है। लेकिन इस तरह जागतिक भाई चारे की गरज शायद हिंदुओं ने कभी महसूस ही नहीं की या फिर ऐसी वैश्विक एकता का अंतरराष्ट्रीय राजनीति, आर्थिकी और सामाजिकी के संदर्भ में महत्व नहीं समझा। अगर समझा भी तो कभी उस पर अमल करने की कोशिश नहीं की। व्यक्तिगत मोक्ष की कामना ही हिंदुओं का अंतिम साध्य रहा है। इसी तरह जगत कल्याण की उदात्त आकांक्षा के चलते वह अपने ही अधिकारों की सामूहिक रक्षा के आग्रह में मुश्किल से ही बदल पाता है।
हिंदू धर्म की ताकतवर सहिष्णुता का शायद सबसे कमजोर पक्ष यही है कि ‘जियो और जीने दो’ के आग्रह में हम यह भी भूल जाते हैं कि यह थ्योरी तभी सार्थक है कि जब दूसरा भी ऐसा चाहे। मूलत: यह सिद्धांत अति उदात्त भाव से प्रेरित होने के बाद भी एक ही हाथ से ताली बजाने की वकालत ज्यादा करता है।
बहरहाल, मुद्दा बांग्लादेश में हालात और धार्मिक विद्वेष के मारे हिंदुओं का है। विडंबना यह है कि सीधे धार्मिक टकराव में तो हिंदू निशाने पर होते ही हैं, लेकिन राजनीतिक दलों के बीच सत्ता की लड़ाई का भी वो पहला शिकार होते हैं। बांग्लादेश और पाकिस्तान इसके दो बड़े उदाहरण हैं। 1971 में जब बांग्लादेश के मुस्लिम बंगालियों ने पाकिस्तानी फौज के दमन के खिलाफ सशस्त्र लड़ाई लड़ी, उसमें भी बड़े पैमाने पर अल्पसंख्यक हिंदुओं की हत्याएं हुईं, महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ। जबकि उनका सत्ता की लड़ाई से कोई सीधा सरोकार न था।


तत्कालीन पूर्व पाकिस्तान में बुरे हालात से जो 1 करोड़ शरणार्थी भारत आए, उनमें ज्यादातर हिंदू ही थे, जिनमें से कम ही वापस बांग्लादेश लौटे। उसके बाद बांग्लादेश बनने के बाद भी टुकड़ों में हिंदुओं का भारत आना जारी है। फर्क इतना रहा कि जिस शेख हसीना सरकार को आज बांग्लादेश में फासिस्ट और अत्याचारी सरकार करार दिया जा रहा है, उसने काफी हद तक मुस्लिम कट्टरपंथियों पर लगाम लगाई हुई थी।

इसी तरह पाकिस्तान में हिंदुओं की बेटियों के जबरन धर्मांतरण, धर्मस्थलों पर हमले, मूर्तियां तोड़ने और हिंदुओं को काफिर कहकर और नफरत बढ़ाने की घटनाएं सामने आती रहती हैं। इन हालात में कुछ हिंदू भारत भी आ जाते हैं। लेकिन सब भारत आ जाएं, यह व्यावहारिक भी नहीं है।

इस दृष्टि से बांग्लादेशी हिंदुओं का बड़ी तादाद में सड़कों पर उतरना वहां के नए सत्ताधीशों और कट्टरपंथियों के लिए भी चौंकाने वाला है। अमूमन घबराकर घर बार छोड़कर जाने वाली कौम अचानक पूरी ताकत से सड़कों पर कैसे उतर आई? क्योंकि आमतौर पर हिंदुओं से इस तरह के विरोध प्रदर्शन की अपेक्षा नहीं की जाती। वो इकट्ठे भी होते हैं तो किन्हीं धार्मिक समागमों में। यह मान्यता आम है कि जिस तरह हिंदू सामाजिक रूप से एक नहीं होते, उसी तरह अपने व्यापक हितों और अस्मिता को लेकर कभी एक नहीं हो सकते।

जातीय विभाजन उन्हें एक ईकाई की तरह कभी एक नहीं होने देगा। वो मार खाते रहेंगे और कराहते रहेंगे और मुश्किल में भगवान से रक्षा की गुहार लगाते रहेंगे। इसके विपरीत बांग्लादेश में उभरा यह एकजुट विरोध भी हिंदुओं को वास्तव में कितना एक रखेगा, अभी कहना मुश्किल है। लेकिन इस प्रतिरोध में वैश्विक हिंदू एकता का दिशादर्शक तत्व निहित हो सकता है। और यह एक अच्छा लक्षण है।


हिंदुओं को समझना होगा राजनीतिक शक्ति
हिंदुओं के इस साहस को भारत में राजनीतिक हिंदुत्व की सीमित परिभाषा से आगे जाकर समझना होगा। क्योंकि विश्वभर में हिंदू धर्म न केवल सबसे प्राचीन धर्मों में से एक है बल्कि यह दुनिया का चौथा सबसे बड़ा धर्म भी है। यह केवल एक किताब, एक अवतार, एक विचार से प्रसूत धर्म भी नहीं है। यह एक अनूठी जीवन शैली है, जो अपनी तमाम खामियों के बाद भी दुनिया में शाश्वत और नित्य नूतन है। इसे किसी विचार, अस्त्र, विष अथवा क्रूरता से नहीं मारा जा सकता। हिंदू धर्म अपने ही दम पर टिका है।
अपने ढीले-ढाले संगठन, असंख्य मत मतांतरों, दर्शनों और आराधना पद्धतियों के बाद भी जिंदा है। यह इसलिए भी अहम है कि आज जग में भारत और नेपाल जहां हिंदू बहुल है, वही करीब दो दर्जन देशों में हिंदू आबादी उल्लेखनीय संख्या में है। इसके बाद भी हिंदुओं की आवाज विश्व स्तर पर उतनी दमदारी से क्यों नहीं उभरती, उसे उस रूप में क्यों नहीं सुना जाता? क्या इसलिए कि हम विश्व को एक परिवार मानते हैं, जबकि इतर मान्यताओं में परिवार ही समूचे विश्व पर अपना हक जताते हैं?

यहां बात केवल किसी देश या राज्य में सत्ता हथियाने तक सीमित नहीं है बल्कि अपने वजूद और सम्मानपूर्वक जीने के हक को जताने की है। बांग्लादेशी हिंदुओं के साथ दुनिया के कई देशों अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन आदि देशों में भी हिंदू अपने दायरों से बाहर निकल कर समर्थन में उतरे हैं तो यह वैश्विक हिंदू चेतना के जाग्रत होने का शुभ लक्षण है। कुछ जगह उनके समर्थन में ईसाई और यहूदी समुदाय के लोगों ने प्रदर्शन में भाग लिया।

यहां भारत में भी आरंभिक राजनीतिक गुणा-भाग के बाद विपक्षी पार्टियों ने भी बांग्लादेशी हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ सधी हुई जबान में विरोध दर्ज कराना शुरू किया है। यह कैसे हो सकता है कि आप एक समुदाय पर अत्याचार के खिलाफ राजनीतिक रूप से मुखर हों और दूसरे अल्पसंख्यक समुदाय पर ज्यादती को भारत के आईने में देखकर अपनी भाव मुद्रा तय करें?


लेखक मप्र के ख्यात वरिष्ठ पत्रकार हे।

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