-क्षेत्र में तेज ठंड का दौर शुरु
मुकेश साहू दीवानगंज रायसेन
सर्दी ने दस्तक दे दी है। जिससे रजाई गद्दों का कारोबार तेज हो गया है। इस समय रजाई के दुकानदारों के यहां लोगों की भीड़ भी उमड़ रही है। दुकानदारों का कहना है कि इस समय सबसे ज्यादा बिनोला रूई की मांग है। रजाई के साथ साथ गद्दों की मांग भी चल रही है।
दीवानगंज की रजाई गद्दों की दुकानों में लोगों की भीड़ शुरू हो गई है। आर्डर पर भी लोग रजाई की भरवाई करा रहे हैं। इस बार सबसे ज्यादा बिनोला रूई की मांग तेज हैं। दो सौ रुपए प्रतिकिलो के हिसाब से रूई बिक रही है। इसके अलावा अन्य रुई भी रजाई में भरी जा रही है। पचास रुपये से लेकर तीन सौ रुपए तक रुई के दाम चल रहे हैं। वहीं तगाई चालीस रुपये से सौ रुपये, धुनाई दस रुपये प्रति किलो के हिसाब से की जा रही है। पूरी रजाई चार सौ रुपये से लेकर एक हजार तक में तैयार हो रही है। दुकानदार सनब्बर खान ने बताया कि रेडीमेड रजाई की भी मांग काफी है। इसके अलावा आर्डर पर भी जमकर काम मिल रहा है। गद्दे भी तीन सौ से लेकर सात सौ रुपए प्रति किलो के हिसाब से बनकर तैयार किए जा रहे हैं। सर्दी से बचाव के लिए लोगों ने अपने इंतजाम करने शुरू कर दिए हैं।
दीवानगंज सहित आसपास के ग्रामीण इलाकों में इन दिनों हाड़ कंपा देने वाली सर्दी पड़ रही। सर्दी से राहत पाने के लिए अलाव के अलावा रूई से बने देसी तकनीक वाले रजाई, गद्दे कई बरसों से काम में लेते आ रहे हैं। इसके चलते यह रोजगार यहां पर खूब फला फूला है। सर्दी के दिनों में रूई पिनाई के काम से जुड़े लोगों के परिवार दिन-रात मेहनत करके कार्य में जुटे रहते थे। ये हाथ से देशी तकनीक के सहारे रजाई-गद्दे बनाकर लोगों को सर्दी से राहत प्रदान करते हैं, लेकिन समय बदला तो रजाई, गद्दे बनाने की तकनीक भी बदल गई हैं।
आधुनिक मशीनरी युग में अब हाथ की जगह मशीनों ने ले ली। पूर्व में सर्दी के मौसम की शुरूआत होते ही पिनाई का काम करने वालों के यहां पर लोगों की भीड़ जुटने लगती थी लेकिन, बीते एक दशक से हाथों से भरे जाने वाले रजाई-गद्दों के स्थान पर लोगों ने रेडिमेड गर्म कम्बल व डनलप के गद्दे काम लेना शुरू कर दिया है। इससे बड़ी संख्या में पिनाई के काम से जुड़े परिवारों पर रोजी-रोटी का संकट गहराने लगा है। महंगाई के कारण लोग सस्ते विकल्प के तौर पर पानीपत, लुधियाना, उत्तर प्रदेश, पंजाब, सहित अन्य कई राज्यों से आ रहे सिंथेटिक कंबल खरीद रहे हैं। रजाई,गद्दे के कारोबार से जुड़े हकीम खान सनब्बर खान ने बताया कि करीब एक दशक पूर्व दीपावली के बाद गुलाबी सर्दी की दस्तक के बाद शहर और गांव के लोग रजाई-गद्दों को भरवाना शुरू कर देते थे। सीजन में हमें फुर्सत ही नहीं मिलती थी। दिन- रात रूई के रजाई- गद्दे भरने व सिलने का काम चलता था। दीवानगंज क्षेत्र में इस व्यवसाय से जुड़े सैकड़ों परिवारों सहित सिलाई व भराई का काम करने वाले मजूदरों के परिवारों की रोटी का बारह महीने का जुगाड़ हो जाता था।
रजाई,गद्दों के व्यवसाय से जुड़े लोगों के मुताबिक बीते एक दशक में बिक्री घट कर आधी से भी कम रह गई है। पहले जहां एक दुकान पर सीजन में महीने की सौ रजाई व गद्दे बिकते थे। बीते एक दशक में ये बिक्री घट कर आधी रह गई है। हालात ये हो गए हैं कि सीजन के समय कमाई होने की आस में स्टॉक करने के लिए लगाई गई पूंजी पर ब्याज देना पड़ रहा है। दिनभर में मुश्किल से एक-दो रजाई कभी-कभार बिक रही है। इस व्यवसाय में मजदूरी करने वाले लोगों पर भी रोजी रोटी का संकट गहरा गया है।
सनब्बर खान, हकीम खान बताया कि रजाई-गद्दे भराई व पिनाई का काम उनकी कई पीढिय़ों से किया जा रहा है। इस कारोबार से जिले में सैकड़ों परिवार परंपरागत रूप से जुड़े हुए हैं। वर्तमान में रूई से निर्मित एक अच्छी रजाई की कीमत करीब एक हजार से 12 सौ रुपए तक है। रजाई में धागा डालने व रूई पीन कर भरने वाले मजूदरों का परिवार भी इसी कारोबार से चलता है। अब कंबल सस्ती दरों पर मिल रहे हैं। ऐसे में लोगों का रूई की देशी तकनीक वाली रजाइयों से मोहभंग हो रहा है।