इस्लाम में नमाज की सबसे ज्यादा अहमियत बताई गई है. नमाज को इस्लाम के 5 स्तंभों में से एक माना जाता है. हर मुसलमान के लिए 5 वक्त की नमाज पढ़ना जरूरी बताया गया है. इन 5 नमाजों में फज्र की नमाज (सुबह सवेरे की नमाज), जौहर की नमाज (दोपहर के वक्त), असर की नमाज (करीब 4-5 के बीच), मगरिब की नमाज (सूर्यास्त के वक्त) और ईशा (रात को सोने से पहले वाली नमाज) की नमाज पढ़ी जाती है. इन्हीं नमाजों में एक विशेष नमाज होती है, जिसे सबसे अफजल यानी सबसे जरूरी माना जाता है. यह है नमाज-ए जुमा, जो हर शुक्रवार को दोपहर के वक्त अदा की जाती है.
इस्लाम में शुक्रवार के दिन को जुमा कहा जाता है. जुमे के दिन दोपहर में जिस वक्त हर दिन जौहर की नमाज अदा की जाती है, उसी वक्त ये जुमे की नमाज होती है. इस दिन आमतौर पर मस्जिदों में मुसलमान बड़ी तादाद में पहुंचते हैं. ये देखा जाता है कि जो लोग पूरा हफ्ता मस्जिद न आते हों, वो भी जुमे की नमाज में पहुंचते हैं.
दरअसल, इस दिन लोग एकत्रित होकर एक दूसरे के साथ अल्लाह की इबादत करते हैं. मुस्लिमों के लिए जुमे का खास महत्व है. जुमे के दिन को रहमत और इबादत का दिन माना जाता है. इस्लामिक तथ्यों के मुताबिक इस दिन नमाज पढ़ने वाले इंसान की पूरे हफ्ते की गलतियों को अल्लाह माफ कर देते हैं.
मिर्ज़ा ग़ालिब रिसर्च एकेडमी के डायरेक्टर और इस्लामिक स्कॉलर डॉ सय्यद इख्तियार जाफरी से इस विषय पर विस्तार से बात की. उन्होंने बताया कि सभी 5 नमाजों के पढ़ने का हुकुम यानी फर्ज होने का हुकुम कुरआन में आया है. जबकि हदीस में बताया गया है कि कौन-सी नमाज कब-कब और कैसे पढ़नी चाहिए. वैसे ही जुमे की नमाज का हुकुम अलग से आया है. हालांकि जुमे की नमाज जौहर की ही कायम नमाज है. जुमे की नमाज का टाइम दोपहर 12 बजकर 05 मिनट से शुरू हो जाता है.
जुमे की नमाज मस्जिद में जमात के साथ ही अदा की जा सकती है यानी अन्य दिनों की नमाज की तरह ये नमाज घर, दुकान या कहीं अकेले में नहीं पढ़ी जा सकती है. इस नमाज के लिए जमात (एक साथ कई लोगों के नमाज पढ़ने को जमात में नमाज पढ़ना कहा जाता है, इस नमाज को इमाम पढ़ाते हैं) में कम से कम 10 लोगों का होना जरूरी होता है. जुमे की नमाज में खुतबा पढ़ा जाता है, (खुतबा मतलब मस्जिद के मौलाना द्वारा की गई एक तकबीर) जिसे जुमे की नमाज में बेहद जरूरी माना जाता है. खुतबे में आमतौर पर समसामयिक विषयों पर लोगों को सूचित भी किया जाता है, वर्तमान हालात पर लोगों को संदेश भी दिया जाता है, कई बार समाज और हालात के हिसाब से कुछ अपील भी जारी की जाती हैं.
क्या जुमे की नमाज सब पर फर्ज है?
डॉ सय्यद इख्तियार जाफरी ने इसपर बताया कि अगर कोई व्यक्ति सफर में है या कोई महिला पीरियड्स से है या फिर कोई बीमार है, तो इन लोगों के ऊपर जुम्मे की नमाज का पढ़ना फर्ज नहीं है. इस्लामिक मान्यता के मुताबिक, जुमे की नमाज महिलाओं के ऊपर फर्ज नहीं बताई गई है. यह नमाज सिर्फ मर्दों पर फर्ज है. जुमे के दिन औरतें रोज की तरह सिर्फ जौहर की नमाज ही पढ़ती हैं.
जुमे की नमाज पढ़ने की बहुत फजीलत बताई गई है. कुरआन के 28 वें पारे की सूरह-अल-जुमा आयत में इस नमाज के बारे में जिक्र किया गया है. इस आयत में हुकुम दिया गया है…
“ऐ ईमान वालों जब तुम जुमे की अज़ान सुनो, तो काम-धंधे छोड़कर मस्जिद की तरफ नमाज़ के लिए दौड़ पड़ो.”
इसका मतलब है कि जब भी जुमे की अजान हो तो काम को छोड़कर जितना जल्दी हो सके नमाज के लिए मस्जिद में जाना चाहिए. फिर मस्जिद में ही ये नमाज अदा करें और अल्लाह का जिक्र करना चाहिए. इस्लाम में कहा जाता है कि जो जुमे की अजान की आवाज सुनकर सबसे पहले मस्जिद में नमाज के लिए जाता है, उसे सबसे ज्यादा सवाब मिलता है.
मुस्लिमों के लिए क्यों खास है जुमे का दिन?
डॉ सय्यद इख्तियार जाफरी आगे कहते हैं – ‘इस्लाम धर्म की बहुत सी खास बातें इसी जुमे के दिन ही हुई हैं. इस्लामिक मान्यता के मुताबिक, अल्लाह ने दुनिया को बनाने की शुरुआत इसी दिन की थी और हजरत आदम की पैदाइश भी इसी दिन हुई थी, इसके अलावा यह भी कहा जाता है कि कयामत भी जुमे के दिन ही आएगी. जुमे को सभी दिनों का सरदार यानी सय्यद उल अय्याम कहा जाता है. इसलिए जुमे का दिन मुस्लिमों के लिए बेहद ही खास होता है.
हदीस में कहा गया है कि इंसानों के जो भी आमाल हैं यानी जो काम हैं, उनका लेखा जोखा जुमे और सोमवार के दिन ही आसमानों तक पहुंचाया जाता है. इसलिए यह हुकुम दिया गया है कि इस दिन ज्यादा से ज्यादा इबादत की जाए और कुरआन ज्यादा पढ़ा जाए और गुनाहों से तौबा की जाए. इनके अलावा सूरह अल कहफ़ और सूरह अल जुमा, ये दोनों आयत पढ़नी चाहिए.
सबसे पहले कब और कैसे पढ़ी गई जुमे की नमाज?
सय्यद जाफरी ने बताया कि पैगंबर मुहम्मद साहब जब मक्का से हिजरत करके मदीना आ रहे थे, तो मक्का से पहले बाहरी इलाके में एक जगह है कुबा, उस जगह पर उन्होंने अपने अनुयायियों के साथ जुमे की नमाज अदा की थी. इसी नमाज को जुमे की सबसे पहली नमाज कहा जाता था.