ग्वालियर। मुगल सम्राट अकबर ने भगवान राम के चरित्र को अरब देशों तक पहुंचान के लिए रामायण को अरबी भाषा में लिखवाया था। अरबी भाषा में हाथों से लिखी गई एक रामायण ग्वालियर में गंगादास की बड़ी शला में आज भी मौजूद है। अरबी में लिखी इस रामायण की स्याही इतनी पक्की थी कि आज भी वही चमक बरकरार है और इसे आज भी आसानी से पढ़ा जा सकता है।
गंगादास की बड़ी शाला का इतिहास करीब 5 सौ साल पुराना है। शाला के पहले महंत परमानंद दास महाराज को अकबर ने अपना गुरु बनाया था। अकबर ने उन्हें टोपी और वस्त्र दान में दिए थे, जो आज भी बड़ी शाला में सुरक्षित रखे हैं। अंग्रेजों से लड़ते हुए घायल हुईं झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने भी गंगादास की शाला में अपने प्राण त्यागे थे। उनका दाह संस्कार महंत गंगादास जी ने अपनी कुटिया में किया था। बताया जाता है कि जब अकबर ने परमानंद महाराज से शिष्य बनाने के लिए कहा तो उन्होंने कहा था कि तुम सभी धर्मों को मानो तो अपना शिष्य बनाउंगा। अकबर ने उनकी शर्त मान ली। इसके बाद ही अकबर ने दीन ए इलाही धर्म की स्थापना की थी।
गंगादास की बड़ीशाला के महंत रामसेवक दास ने इतिहास से परिचित कराते हुए बताया कि उस समय स्वर्ण रेखा नदी के किनारे का क्षेत्र काफी वीरान था। यहां पर हनुमान जी की प्रतिमा थी। परमानंद दास जी महाराज सुबह-शाम पूजा अर्चना करते थे। उस समय ग्वालियर किले पर अकबर की फौज थी और राजधानी आगरा में थी। जब परमानंददास महाराज हनुमान जी की आरती करते थे, तब उन्हें घंटे, शंख की आवाज फौज को सुनाई देती थी। आरती कौन करता है, यह देखने के लिए किले से सैनिक यहां पर कई बार आए, लेकिन परमानंद जी योग द्वारा उन्हें दिखाई नहीं देते थे। यह जानकारी सैनिकों ने अकबर को दी। तब अकबर खुद बड़ीशाला पहुंचे। अकबर ने देखा कि महाराज टीले पर ध्यान मग्न थे। अकबर हाथी से नहीं उतरे तो परमानंद जी ने टीले को योग के द्वारा हाथी से भी ऊंचा कर लिया। यह देख अकबर महाराज के सामने दंडवत हो गया और माफी मांगी। तब परमानंद ने उन्हें माफ किया और ध्यान मग्न हो गए। इस पर अकबर दो दिन तक उनके सामने बैठे रहे। इसके बाद अकबर सभी धर्मों को मानने लगा।