आलेख
अजय बोकिल
जैसा कि लग रहा था इंडिया बनाम भारत की बहस असली मुद्दों पर से जनता का ध्यान हटाने में लग गई है। कांग्रेस और उसके गठबंधन में शामिल सभी दलों को लग रहा है कि ‘इंडिया’ नामकरण के साथ ही उन्होंने चुनावी मैराथन का पहला पड़ाव जीत लिया है क्योंकि भाजपा के पास ‘इंडिया’ का विरोध करने के दो ही तरीके हैं, या तो उसे बदनाम करें या फिर खुद को इंडिया से अलग कर लें। भाजपा के लिए दूसरा विकल्प इसलिए संभव नहीं है, क्योंकि कल तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इंडिया शब्द प्यारा था। मसलन ‘मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया, इंडिया फर्स्ट वगैरह’। इनमें भारत कहीं नहीं था, क्योंकि भारत शब्द में वो कुलीन भाव नहीं आता, जो ‘इंडिया’ में आता है। लेकिन यह ‘इंडिया’ भी तो ‘भारत’ में से ही बनना है। इसलिए विपक्ष ने शाब्दिक फुटबॉल में यही शब्द अपने पाले में डाल लिया है।
अब दोनो ही इसकी अपने-अपने ढंग से व्याख्या करने और एक दूसरे की व्याख्या को फिजूल ठहराने में लगे हैं। ‘इंडिया’ के बहाने अगले लोकसभा चुनाव में अपनी राजनीतिक अस्मिता बचाने को लेकर जारी इस बहस में उस भारत की न्यूनतम रूचि है, जो आज भी सही मायनों में ‘अच्छे दिनो’ की आस में जी रहा है।
इस हजारों साल पुराने देश के नामकरण को लेकर एक द्वंद्व हमेशा से रहा है। यह द्वंद्व अपने प्राचीन नाम भारत को धारण किए रखने अथवा न रखने तथा ‘इंडिया’ जैसा नाम विदेशियों द्वारा दिए गए, लेकिन अब दुनिया भर में प्रचलित हो चुके नाम को ही अपनी पहचान मान लेने का है। समूचा देश इस अंर्तद्वंद्व में 75 सालों से जी रहा है। इसकी सहज व्याख्या यह है कि जब ये देश ‘यस सर’ कहता है तो इंडिया होता है और ‘जब वो बड़ों के पैर छू रहा होता है तो ‘भारत’ होता है। या यूं कहे कि ‘इंडिया’ के आवरण में एक ‘भारत’ सदियों से जी रहा है।
सवाल हमारे पूर्वज संविधान निर्माताओं के सामने भी रहा होगा। इसलिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 1 की धारा 1 में ही स्पष्ट तौर पर लिखा है कि ‘भारत अर्थात इंडिया राज्यों का संघ होगा ( मूल अंग्रेजी में इंडिया दैट इज भारत शैल बी अ यूनियन ऑफ स्टेट्स)।
इसका अर्थ यह है कि संविधान निर्माताओं में भी इस बात पर एकमत नहीं था कि इस देश को ‘इंडिया’ कहा जाए या फिर ‘भारत।‘ लिहाजा बीच का रास्ता निकाला गया कि इस प्राचीन देश के दोनों ही नाम आधिकारिक रूप से स्वीकार किए जाएं यानी प्राचीनतम नाम भारत और अर्वाचीन नाम ‘इंडिया।‘ लेकिन इसी से एक ही देश में ‘दो देश’ होने को अवधारणात्मक स्वीकृति मिली कि एक है- इंडिया और जिसकी अपनी सोच, दृष्टि और आग्रह है तथा दूसरा है- भारत जिसकी अपनी कल्पना, इतिहास बोध अंतर्विरोध और समस्याएं हैं। वैसे भारत का आजादी के बाद तीसरा और आधिकारिक नाम ‘भारत का गणराज्य’ यानी( रिपब्लिक आफ इंडिया) है।
इस प्राचीन देश के यूं तो कई नाम हैं, लेकिन भारत सर्वाधिक स्वीकार्य है लेकिन भारत में आने वाले विदेशियों तथा बाहरी हमलावरों के समय समय पर भारत को अलग अलग नाम दिए, जिसमें भारत की सांस्कृतिक पहचान से ज्यादा उसकी भौगोलिक पहचान को तवज्जो दी गई। वैदिक काल में भारत आर्यावर्त था, जो पुराण काल तक आते-आते भारत अथवा भारत वर्ष हो गया। इसलिए विश्व के सबसे पुराने महाकाव्यों में से एक ‘महाभारत’ का नाम भी भारत में होने वाला महा धर्मयुद्ध बनाकर रखा गया। इसके लिए कई जगह जम्बूद्वीप नाम का भी उल्लेख मिलता है।
हिंदू धार्मिक कर्मकांड में इसी शब्द का प्रयोग होता है लेकिन इससे हटकर ज्ञात इतिहास को देखें तो जब भारत का संपर्क अन्य सभ्यताओं और संस्कृतियों से होता है तो वो भारत को अलग- अलग नामों से पुकारने लगते हैं। ज्यादातर ने भारत की पहचान पश्चिम एशिया से बाकी देश को अलग करने वाली सिंधु नदी को ध्यान में रखकर की है क्योंकि वैदिक काल के समांतर समझी जाने वाली वर्तमान ईरान (पुराना पारस या फारस) में बोली जाने वाली प्रोटो इंडियन ईरानी ( ईसा पूर्व तीसरी सदी ) भाषा में पारसी लोगों ने भारत को ‘सिन्दस’ नाम से सम्बोधित किया।
वैसे ईसा के तीन हजार वर्ष पूर्व पनपी प्राचीन मेसोपोटामिया (आधुनिक इराक) की सभ्यता में भारत को ‘मेलुहा’ नाम से सम्बोधित किया गया है लेकिन यह पहचान भी बाद में सिंधु नदी की आभा में गुम हो गई। भारत के लिए ‘हिंदूश’ का पहला उल्लेख 486 ईपू में पारसी सम्राट दारा के समय लिखी गई किताब ‘नक्श-ए-रूस्तम’ में मिलता है। सम्राट दारा ( डेरियस) ने पहली बार 516 ईपू में भारत के सिंध प्रांत को जीता था। इस हिसाब से तब इस भूभाग को हिंदस (होना चाहिए था लेकिन सिंदस, लेकिन पुरानी पारसी भाषा में ‘स’ का उच्चारण नहीं था) कहा गया।
बाद में ग्रीको ने भारत को इंडिक ( जिसमें सिंध नदी इंडस हो गई और बाद में लैटिन में यही शब्द ‘इंडिका’ बना) लैटिन से अंग्रेजी में ‘इंडिया’ हो गया। दूसरी तरफ मुस्लिम आक्रांताओं ने सिंध नदी के उस पार के निवासियों को हिंदू कहा, जो आज एक राजनीतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक अस्मिता का पर्याय हो गया है। यानी हिंदस से हिंद और हिंद में रहने वाले हिंदू या हिंदुस्तानी लेकिन अंग्रेजों की तरह सभी देश भारत को ‘इंडिया’ के नाम से नहीं पुकारते। उन्होंने अपनी भाषाओं के हिसाब से भारत के नाम रखे हुए हैं, जिसकी जानकारी अधिकांश भारतीयों को नहीं है। मसलन ‘इंडिया’ फ्रेंच में ‘इंदे’, स्पेनिश में ‘ला इंदिया’, जर्मन में ‘इंडियेन’, पुर्तगाली में ‘इंदिया अथवा इंदियो’, अरबी में ‘अल हिंद’, आधुनिक ग्रीक में ‘इंदोस’, कोरियाई भाषा में ‘इंदो’, चीनी में ‘यिंदू’, जापानी में ‘इंदो’ नाम से जाना जाता है। इसमें कहीं ‘भारत’ शब्द का उल्लेख नहीं है।
अब इसे बरसों की गुलामी के कारण कहें या आत्मवंचना कहें, हमने भी इंडिया अथवा इंडियन पहचान को स्वीकार कर लिया है। अब इसे बदलना बहुत मुश्किल है। वैसे देशों के मूल नाम के बजाए उन्हें उनके प्रचलित अथवा वाक् सुविधा के हिसाब से नामकरण करना कोई नई बात नहीं है। हर देश दूसरे देश को अपनी निगाह से देखता-समझता है।
जैसे कि चीन का असली नाम चीनी भाषा में ‘झोंगुओ’ है, लेकिन हम उसे चीन के नाम से ही पुकारते हैं, क्योंकि हमने यही नाम सुना और पढ़ा है। फ्रांस का पुराना नाम ‘गाल’ था, लेकिन अब वह फ्रांस ही कहलाता है। ‘म्यांमार’ हमारे लिए ब्रह्म देश था, बाद में बर्मा हुआ और अब म्यांमार। श्रीलंका को अपने पुराने नाम ‘सीलोन’ से पिंड छुड़ाने में काफी वक्त लगा। पाकिस्तान नाम इसलिए चल गया, क्योंकि भारत से धर्म के आधार जो भूखंड अलग हुआ था, उसकी अपनी कोई अलग और एकजाई पहचान नहीं थी।
लेकिन अब राजनीतिक-कारणों से ‘इंडिया बनाम भारत का एक नया संघर्ष खड़ा किया जा रहा है। आग्रह यही कि जो हम सोच रहे हैं, वही सही और सार्थक है। असल में यह संघर्ष लादी हुई और अंतनिर्हित पहचान का है। लेकिन आरोप-प्रत्यारोप के रूप में जो व्याख्याएं इंडिया और भारत की की जा रही हैं, वह अर्ध सत्य से प्रेरित ज्यादा हैं और मैं कहूंगा वही सच पर आधारित हैं। मसलन अगर I.N.D.I.A. ही भारत है तो कांग्रेस ने स्वतंत्रता की लड़ाई किसके लिए लड़ी थी? अंग्रेजो द्वारा प्रदत्त ‘इंडिया’ की पहचान को कायम रखने के लिए तो नहीं लड़ी थी। वह परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़े भारत की आत्मा की स्वतंत्र होने की पुकार थी।
अगर ‘इंडिया’ धर्मनिरपेक्ष देश है तो फिर ‘भारत’ क्या है? तमाम राष्ट्रवादी अवधारणा के बाद यह सत्य कोई खारिज नहीं कर सकता कि भारत एक बहुलवादी देश है और इसी में उसकी पहचान निहित है। आक्रामकता भारत की पहचान नहीं है (हालांकि इसका खामियाजा भी हमने भुगता है)। चूंकि इंडिया को भारत से अलग नहीं किया जा सकता, इसलिए विपक्षी दलों को भारत शब्द को भी लाना पड़ा। क्योंकि केवल ‘इंडिया’ से काम नहीं चलता। भले ही ‘फील गुड’ की तरह हो।
उधर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इंडिया की अपनी ही परिभाषा के उलट इंडिया की नकारात्मक व्याख्या की। उन्होंने विपक्षी महाजुटान की तुलना भारत को लूटने वाली ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ से कर दी। मसलन ‘इंडियन मुजाहिदीन’ या –पापुलर फ्रंट ऑफ इंडिया’ से कर दी।
यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने विपक्षी गठजोड़ की तुलना कौवे से करते हुए कहा कि कौवा कितना भी हंस बनने की कोशिश करें, मोती नहीं चुग सकता। दूसरे अर्थ में वह मोदी को कभी भी हरा नहीं सकता। हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने इंडिया को फ्यूज बल्ब कहा। केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि अपने बुरे अतीत से पीछा छुड़ाने के लिए विपक्ष ‘इंडिया’ के नाम से सामने आ गया है। यानी भाजपा का कहना है कि कांग्रेस भले भारत की पार्टी हो, लेकिन उसकी मानसिकता ‘इंडिया’ वाली है।
उधर कांग्रेस और 26 दलों का विपक्षी गठबंधन इंडिया की व्याख्या अपने ढंग से कर रहा है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने मणिपुर मामले पर मोदी सरकार की नस दबाते हुए ट्वीट किया कि “आप हमें जो चाहें बुलाएं, मिस्टर मोदी. हम भारत हैं। हम मणिपुर को ठीक करने में मदद करेंगे और हर महिला और बच्चे के आंसू पोंछेंगे। हम उसके सभी लोगों के लिए प्यार और शांति वापस लाएंगे।” इसके पहले कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने भी पीएम मोदी को जवाब दिया कि कांग्रेस पार्टी हमेशा ‘मदर इंडिया’ यानी ‘भारत माता’ के साथ रही है। अंग्रेजों के गुलाम तो भाजपा के राजनीतिक वंशज ही थे।‘
अब यह अलग बात है कि ‘भारत’ शब्द का इस्तेमाल किसी नकारात्मक उद्देश्य के लिए नहीं किया जा सकता। उसके लिए ‘इंडिया’ की शरण में ही जाना पड़ता है। तो क्या मोदी का ‘इंडिया’ और राहुल का ‘इंडिया’ दोनों अलग अलग हैं? क्या भारत की जनता को इन्हीं दोनों के इंडिया में से किसी एक का चुनाव करना होगा?
–लेखक मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हें।